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भर राजा डलदेव राजभर कि इतिहास

  इतिहास के अनुसार ग्यारहवी सदी में उत्तर भारत का लगभग पूरा क्षेत्र श्रावस्ती सम्राटमहाराजा  सुहेलदेव राजभर के राज्य में था परन्तु बारहवी सदी आते आते मुसलमानों के आतंक से भरो की राज्य व्यवस्था काफी प्रभावित हुई । यहाँ तक कि हरदोई के भर राजा हरदेव को मुसलमानों की मदद से मुसलमानों ने पराजित किया तथा जबरन हिन्दू भर समाज को मुसलमान बनाने का अभियान छेड़ दियाI I उन्हें जबरन धर्म परिवर्तन यानी मुसलमान बनाने के लिए बाध्य किया गया I इसका बिरोध करने पर हिन्दू भर समाज और अन्य हिन्दू जातियों का खुलेयाम कत्ले आम किया गया और भरो को राजनैतिक, आर्थिक तथा धार्मिक यातनाओ का सामना करना पड़ा I मुसलमानों का यह धार्मिक दमन तेरहवी सदी तक चलता रहा I आत्म-रक्षा के लिये भर जाति का पलायन होने लगा था I उनकी राजसत्ता कमजोर होने लगी Iमुसलमानों ने हिन्दुओं पर बहुत ज्यादती , जुर्म ,अत्याचार करने लगे । चौदहवीं सदी के अंतिम वर्षों में भार-शिव एक बार फिर संगठित हुए और उन्होंने अपनी शक्ति बढ़ायी I पंद्रहवी सदी आते-आते भर राजा डालदेव ने मुसलमानों के शर्की राजवंश विशेषकर जौनपुर के शासक इब्राहीमशाह शर्की (शा.का.1402-1440) क

भर राजा सम्राट सुहेलदेव राजभर जी

 राष्ट्र रक्षक महाराजा सुहेलदेव डॉ. परशुराम गुप्त 1001 ई0 से लेकर 1025 ई0 तक महमूद गजनवी ने भारतवर्ष को लूटने की दृष्टि से 17 बार आक्रमण किया तथा मथुरा, थानेसर, कन्नौज व सोमनाथ के अति समृद्ध मंदिरों को लूटने में सफल रहा। सोमनाथ की लड़ाई में उसके साथ उसके भान्ज सैयद सालार मसूद गाजी ने भी भाग लिया था। 1030 ई. में महमूद गजनवी की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में इस्लाम का विस्तार करने की जिम्मेवारी मसूद ने अपने कंधों पर ली लेकिन 10 जून 1034 ई0 को बहराइच की लड़ाई में वहां के शासक महाराजा सुहेलदेव के हाथों वह डेढ़ लाख जेहादी सेना के साथ मारा गया। इस्लामी सेना की इस पराजय के बाद भारतीय शूरवीरों की ऐसी धाक विश्व में व्याप्त हो गयी कि उसके बाद आने वाले लगभग 150 वर्षों तक किसी भी आक्रमणकारी को भारतवर्ष पर आक्रमण करने का साहस ही नहीं हुआ। ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार श्रावस्ती नरेश राजा प्रसेनजित ने बहराइच राज्य की स्थापना की थी जिसका प्रारंभिक नाम भरवाइच था। इसी कारण इन्हें बहराइच नरेश के नाम से भी संबोधित किया जाता था। इन्हीं महाराजा प्रसेनजित को माघ माह की बसंत पंचमी के दिन 990 ई. को एक पुत्र रत्न की

रोहतास / सवालगढ़ कि इतिहास

 यह है  भर राजाओं की विरासत सावलगढ़ या साबलगढ़। इसकी चर्चा हमने अपनी पुस्तक ‘रोहतास का सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास’ में किया है। नयी यात्रा के क्रम में एक बार पुनः यहाँ पहुँचा। उसकी चर्चा यहाँ करना प्रासंगिक समझता हूँ।              दुबे की सरैयाँ गाँव के दक्षिण में स्थित पहाड़ी के पूरबी छोर पर उससे अलग एक अन्य पहाड़ी चट्टान है। उसपर एक छोटे गढ़ का अवशेष है। उसे ही सावलगढ़ या साबलगढ़ कहा जाता है। यह गढ़ कैमूर जिला मुख्यालय भभुआ से लगभग 18 कि0मी0 पश्चिम में अवस्थित है। इसको दक्षिण, पूरब और फिर उत्तर से घेरती हुई गेहुअनवाँ नदी बलखाती प्रवाहित होती है। फ्रांसिस बुकानन यहाँ 19 फरवरी 1813 ई0 को अपने सर्वेक्षण के क्रम में आया था। उसने इस गढ़ को ‘सावलगढ़’ कहा है, जबकि मार्टिन ने 1838 ई0 में लंदन से प्रकाशित अपने ‘इस्टर्न इंडिया’ भाग 1 में इस गढ़ को ‘श्यामलगढ़’ लिखा है। बुकानन को उस समय जानकारी मिली थी कि यह भर राजाओं का गढ़ है। वैसे इस क्षेत्र में भर और चेरो जनजाति के राजाओं का ही आधिपत्य था। भर और चेरो अपने को नागवंशी कहते हैं।                  श्रीमद्भागवत और पद्मपुराण में बताया गया है कि

भारशीव डलदेव का इतिहास

 एक बार अपने इतिहास पर नजर जरूर डाले राजभरों क्या कहते हैं डॉक्टर गोपाल नारायण श्रीवास्तव इतिहास के अनुसार ग्यारहवी सदी में उत्तर भारत का लगभग पूरा क्षेत्र श्रावस्ती  सम्राट सुहेलदेव राजभर के राज्य में था परन्तु बारहवी सदी आते आते मुसलमानों के आतंक से भरो की राज्य व्यवस्था काफी प्रभावित हुई । यहाँ तक कि हरदोई के भर राजा हरदेव को सवर्णों  की मदद से मुसलमानों ने पराजित किया धोखे से, तथा जबरन भरो को मुसलमान बनाने का अभियान छेड़ दियाI I उन्हें जबरन धर्म परिवर्तनके लिए बाध्य किया गया  I इसका बिरोध करने पर भरो को राजनैतिक, आर्थिक तथा धार्मिक यातनाओ का सामना करना पड़ा I मुसलमानों का यह  धार्मिक दमन  तेरहवी सदी तक चलता रहा I आत्म-रक्षा के लिये भर जाति  का पलायन होने लगा था I लेकिन भारत में जीत के आगे कहां रुकते उनकी राजसत्ता कमजोर होने लगी I       चौदहवीं सदी के अंतिम वर्षों में भार-शिव भर एक बार फिर संगठित हुए और उन्होंने अपनी शक्ति बढ़ायी I पंद्रहवी सदी आते-आते भर  राजा  डालदेव ने मुसलमानों के शर्की राजवंश विशेषकर जौनपुर के शासक इब्राहीमशाह शर्की (शा.का.1402-1440) के धार्मिक अत्याचारों के विरुद

सुल्तानपुर का इतिहास

 जीला सुल्तानपुर= सुलतानपुर के अन्तिम छोर पर बसा मौजा दक्खिन गांव क्यार अपने में एक गौरवशाली इतिहास को आज भी संजोये हुए जमीदारी मौजा प्रमुख दक्खिन गांव क्यार के अंतर्गत 24 जमीदारी गांव सम्मिलित थे । जिसमें 12 गांव नदी उस पार व 12 गांव गोमती नदी के इस पार के थे । 24 जमींदारी गांव के ठीक उक्त ' क्यार ' को दक्षिण होने के कारण इसका नाम ' दक्खिन गाव क्यार ' पड़ा । कहा जाता है कि नवाबों के समय *अयोध्या की ओर से ' भर ' जाति के ब्राह्मणों* ने ' क्यार ' पर जबर्दस्त आक्रमण किया । विशेष रूप से यहां के ठाकुरों ने जमकर उनसे मोर्चा लिया और उनके आक्रमण को विफल कर दिया , जिसमें प्रमुख रूप नायक बाबा ब्रह्मदेव , बाबा धनीवीर एवं बाबा परवाया । इनके सिर कलम कर दिये गये थे । ये नोग जहां - जहा पर मारे गये , वहीं - वहीं पर इन्होंने अपनी समाधि ले ली । ये समाधियां दक्खिन गांव स्थार जिला भीट करेहटा व केरहन का पुरवा में आज भी मौजूद हैं । मरने के बाद उपरोक्त बाबाओं म ठाकुरों से अपनी पूजा ले ही ली । आज भी मौजा एवं इससे लगने वाले पहले जमींदारी के 24गांव के लोग अब भी उपरोक्त तीनों बाबा

उमारांव बिहार का इतिहास

 यह है  भर राजाओं की विरासत सावलगढ़ या साबलगढ़। इसकी चर्चा हमने अपनी पुस्तक ‘रोहतास का सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास’ में किया है। नयी यात्रा के क्रम में एक बार पुनः यहाँ पहुँचा। उसकी चर्चा यहाँ करना प्रासंगिक समझता हूँ।              दुबे की सरैयाँ गाँव के दक्षिण में स्थित पहाड़ी के पूरबी छोर पर उससे अलग एक अन्य पहाड़ी चट्टान है। उसपर एक छोटे गढ़ का अवशेष है। उसे ही सावलगढ़ या साबलगढ़ कहा जाता है। यह गढ़ कैमूर जिला मुख्यालय भभुआ से लगभग 18 कि0मी0 पश्चिम में अवस्थित है। इसको दक्षिण, पूरब और फिर उत्तर से घेरती हुई गेहुअनवाँ नदी बलखाती प्रवाहित होती है। फ्रांसिस बुकानन यहाँ 19 फरवरी 1813 ई0 को अपने सर्वेक्षण के क्रम में आया था। उसने इस गढ़ को ‘सावलगढ़’ कहा है, जबकि मार्टिन ने 1838 ई0 में लंदन से प्रकाशित अपने ‘इस्टर्न इंडिया’ भाग 1 में इस गढ़ को ‘श्यामलगढ़’ लिखा है। बुकानन को उस समय जानकारी मिली थी कि यह भर राजाओं का गढ़ है। वैसे इस क्षेत्र में भर और चेरो जनजाति के राजाओं का ही आधिपत्य था। भर और चेरो अपने को नागवंशी कहते हैं।                  श्रीमद्भागवत और पद्मपुराण में बताया गया है कि