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भारशिव वंश

  चारणकाल में राज-भार क्षत्रियों का उल्लेख लेखक- पं. श्री सत्येननाथ तिवारी, जबलपुर ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे राजवंशानाम् भारशिवानाम् का संक्षिप्त रूप राजभार हुआ मे हो भारशिवानाम का संक्षिप्त रूप 'भार' हुआ होगा । भरजाति प्रतिष्ठित राजवंशीय क्षत्रिय जाति थी इसीलिए इस जाति का उल्लेख राठोर, सोलंकी, पवार, कवाहा, परिहार, चन्दन, तोमर, गहलोत, चौहान आदि राजवंशों के साथ किया गया है। [ अनेक इतिहासकारों ने भर-क्षत्रियों (अगवंश) से राजपूतों को उत्पत्ति मानी है] भर राजवंश का उल्लेख डा. रामकुमार वर्मा ने अपने 'हिन्दी-साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' के पृष्ठ १४२ एवं १४३ (दुसरा प्रकरण चारणकाल (अ) दिनार में प्रकार किया है-" (२) (क) रुहेलखण्ड और उत्तरी अवल भार और अहोरवंश के अनेक राजाओं के अधिकार में था। दसवीं शताब्दी के अन्त राजपूत के बादल वेग ने उस प्रान्त में अपना शासन स्थापित किया । (ख) संक्षेप में यदि चारणकाल की राजनैतिक परिस्थितियों पर विचार किया जाये तो ज्ञात होगा कि राठौर, सोलंकी, पवार, कछवाहा, परिहार, चन्देल, तोमर, राजभर, बहोर, गहनोत और चौहान वंश इस समय राजनीति का शासन कर रहे

बिहार का नामकरण

 पूर्वी अवध में पुरातनता के सभी अवशेषों को आदिम वाशी भरों की बर्बर जाति के रूप में संदर्भित करने का फैशन रहा है।  इस प्रकार मुझे पता चलता है कि दो बौद्ध स्तूप, जो पहले बिहार में अष्टभुजी मंदिर के बाहर खड़े थे, वास्तव में अवध गजेटियर में बिहार के नोट्स के लेखक द्वारा इस जाति को सौंपे गए हैं।  इन स्तूपों के बारे में उनका विवरण इस प्रकार है:- "लगभग दो साल पहले बिहार में बहुत पुराने और दिलचस्प नक्काशीदार पत्थरों की एक जोड़ी मिली थी, जो कि चित्रित आंकड़ों के चरित्र से, मुझे कोई संदेह नहीं है कि वे भर अवशेष हैं। वे निवासियों द्वारा ऐसा माना जाता है, और  पत्थरों के निम्नलिखित खाते (जो बुद्ध के बुद्धि नाम से जाने जाते हैं) उनमें से वर्तमान हैं। (बिहार ) मूल रूप से भरों द्वारा बसाया गया था; किला सासाराम """"""""""""""”""""""""""""""""""""""”""""""""""""&

भारशिव क्षत्रिय इतिहास

 #भर स्थानीय परंपराओं का कहना है कि सदियों से अयोध्या एक जंगल था और अवध के बड़े हिस्से पर #भरों का कब्जा था। इन लोगों की उत्पत्ति और प्रारंभिक इतिहास के बारे में कोई निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं है। पूर्व में यह माना जाता था कि #दल्की और #मल्की, जिन्होंने कालिंजर के किले की कमान संभाली थी, भर राजकुमार थे: लेकिन यह सिद्धांत लंबे समय तक टिक नहीं पाया और कनिंघम ने उन्हें दो बघेल राजाओं, दलकेश्वर और मलकेश्वर के साथ पहचाना। जिले में एक व्यापक #भर_साम्राज्य के साक्ष्य केवल दीह (खंडहर ईंट के टीले) से प्राप्त किए जा सकते हैं, जो लोकप्रिय रूप से भरों के नाम से जाने जाते हैं और इस जिले के कई गांवों में मौजूद हैं। भरों की किसी विशेष राजधानी के बारे में कोई किंवदंती नहीं है, लेकिन यह सुझाव दिया गया है कि यह देश #भर_सरदारों के प्रभाव में था जो #सुल्तानपुर के पुराने नाम कुशवंतपुर या कुसापुर में रहते थे। कुछ भर अभी भी फैजाबाद तहसील के मदना और भिटौरा गाँव में पाए जाते हैं। #राजपूत_भरों को उखाड़ फेंकने के बाद पूरे देश का कई राजपूत सरदारों में विखंडन हो गया, जिन पर कुलों का शासन था। जिले में विभिन्न राजपू

#बिहार #भर_राजाओं की विरासत #सावलगढ़/#साबलगढ़🚩🚩इसका उल्लेख #पुस्तक ‘#रोहतास_का_सामाजिक_एवं_सांस्कृतिक_इतिहास’ में किया है। नयी यात्रा के क्रम में एक बार पुनः यहाँ पहुँचा। #दूबे_की_सरैयाँ गाँव के दक्षिण में स्थित पहाड़ी के पूरबी छोर पर उससे अलग एक अन्य पहाड़ी चट्टान है। उसपर एक छोटे गढ़ का अवशेष है। उसे ही #सावलगढ़ या #साबलगढ़ कहा जाता है। यह गढ़ #कैमूर(बिहार)जिला मुख्यालय #भभुआ से लगभग 18 कि0मी0 पश्चिम में अवस्थित है। इसको दक्षिण, पूरब और फिर उत्तर से घेरती हुई गेहुअनवाँ नदी बलखाती प्रवाहित होती है। #फ्रांसिस_बुकानन यहाँ 19 फरवरी 1813 ई0 को अपने सर्वेक्षण के क्रम में आया था। उसने इस गढ़ को ‘#सावलगढ़’ कहा है, जबकि मार्टिन ने 1838 ई0 में लंदन से प्रकाशित अपने ‘#इस्टर्न_इंडिया’ भाग 1 में इस गढ़ को ‘#श्यामलगढ़’ लिखा है। बुकानन को उस समय जानकारी मिली थी कि यह #भर_राजाओं का गढ़ है। वैसे इस क्षेत्र में #भर और #चेरु_राजाओं का ही आधिपत्य था। भर और चेरो अपने को #नागवंशी कहते हैं। 👉#श्रीमद्भागवत और पद्मपुराण में बताया गया है कि महिर्षि कश्यप की पत्नी दिति से दैत्य,अदिति से आदित्य,विनीता से गरुण और कद्रु से सर्प की उत्पति हुई। नागों में आदि राजा शेषनाग को माना जाता है क्रमशः तक्षक,कार्कोट,धनंजय आदि हुए। 👉 विचारणीय विषय है नाग और #नागवंशियों के संबंध का। नाग एक योनि है और नागों के पूजक ही नागवंशी कहलाये। जिस तरह से सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी,अग्निवंशी रहे है। भारत में प्राचीन परंपरा से नागवंशियों का शासन रहा है। नागों का प्राचीनतम वर्णन #अथर्ववेद में है जिसमें कई तरह के नाग बताये गये है।👉 #त्रेतायुग में #रावण ने कई नागवंशी राजा को पराजित किया था। मेघनाद की पत्नी सती #सुलोचना एक नाग राजकुमारी थी। लक्ष्मण जी स्वयं शेष के अवतार थे। द्वापर में बलराम शेषावतार थे नागवंश का यहाँ भी वर्णन मिलता है। 👉हिमालय पर्वत के पास ही कश्मीर,मेघालय,नगालैंड आदि में नागवंश के राजाओं का अधिकार रहा है। नागवंशियों में ब्राह्मण,क्षत्रिय, वनवासी सभी रहे है। छत्तीसगढ़ और झारखंड की जनजातियों में कई नागपूजक है अपने को नागवंशी कहते है।👉भारत के पश्चिमोत्तर भाग में रहने वाले ‘तक्षक नागों’ की एक शाखा का द्रविड़ों से मिश्रण हुआ था, जिससे एक नई जाति ‘#भर’ के नाम से उद्भूत हुई। राहुल सांकृत्यायन अपनी कहानी ‘#सतमी_के_बच्चे’ में लिखते हैं कि #भर बहुत बलशाली थे और #महाभारत से पहले पश्चिमी भारत में एक सभ्यता के निर्माता थे। महाभारत काल में इन #नागवंशियों को अर्जुन ने ‘#खांडव_वन’ से और श्रीकृष्ण ने ‘मथुरा’ से बाहर निकाला था। #जन्मेजय ने नाग यज्ञ करके भी इनका संहार किया। इससे भर का पूरब की ओर पलायन को मजबूर हुए। इन भरों की एक शाखा जो गंगा के उत्तरी-पूर्वी भाग में उपहिमालयी क्षेत्र मोरांग में रहती थी, ‘चेरो’ कहलाती थी। ऐतरेयारण्यक में चेरो के लिये ‘चेरपादा’ यानी ‘माननीय चेरो’ का संबोधन है। भर और चेरो काली द्रविड़ प्रजाति के थे। नाग यानी मंगोल प्रजाति के साथ इनका रक्त मिश्रण हुआ। अतः उन्हें आनुवंश वैज्ञानिकों ने ‘अर्ध द्रविड़’ कहा है। आज भी जो भर या चेरो अन्य जातियों से मिश्रित संतति न होकर विशुद्ध हैं, उनकी आँखों के ऊपर किरातों यानी मंगोलों जैसी एक पट्टी भी लटकती हुई देखने को मिलती है। इनकी दाढ़ी और मूँछ में बाल कम होते हैं। खैर! इन नाग वंशियों ने अपना बदला अर्जुन से भी चुकाया और इसी शोक में अर्जुन की मृत्यु भी हुई थी। भर और चेरो दोनों पूरब की ओर चले।#नागों के राजा तक्षक ने ही #तक्षशिला नामक नगर बसाया था जोकि पाकिस्तान में है प्राचीन समय में शिक्षा का केंद्र रहा है। भारत में कार्कोट वंश का भी शासन रहा है। 👉नागों से सम्बंधित नगर,नदी,झीलें, जाति राज्य भी भारत में है जैसे नागोदा, नागपुर और यही नाग नदी, शेषनाग झील कश्मीर में और नागालैंड राज्य। नागा जनजाति नागपूजक है और अपने को नागवंशी कहते है।👉भर जहाँ गंगा के दक्षिणी किनारे से मिर्जापुर होकर कैमूर पहाड़ी के पूर्वी भाग सहसराम तक बस गये वहीं चेरो गंगा के उत्तरी भाग में बनारस में अपना राज्य स्थापित किया। 👉 उत्तर वैदिक भर्ग्य, पालि में भग्ग ओर प्राकृत में #भर है। इनका गोत्र #भरद्वाज है। यह मूलत: #क्षत्रिय हैं और सुंसुमार गिरि चुनार क्षेत्र मे ६-५वी सदी ई पू में इनका गणराज्य था। 👉# ईसा से आठवीं सदी पूर्व नागवंशी चेरू वंश में #अश्वसेन हुए जिनके पुत्र जैन तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ थे। बनारस से चेरू छपरा तक फैले। बाद में चेरू गंगा के दक्षिण में शाहाबाद और मगध तक फैल गये और शबर राजाओं के गढ़ों पर कब्जा जमा लिया। मगध के ‘शैशुनागवंश’ और ‘हर्यंक’मूलतः चेरू राजवंश ही थे। पुराणों के अनुसार कलयुग में मगध साम्राज्य में शिशुनाग नाम के राजा का वंश सत्तासीन था। गुप्त शासन में समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति में नाग राजाओं को पराजित करने का वर्णन मिलता है।👉 भर उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के पहाड़ी क्षेत्रों में बसे और अपनी स्थिति मजबूत की। पहले ये कलचुरी शासकों के सामंत बने। बी0ए0 स्मिथ (अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया, पृ0 429), आर.बी.रसेल (ट्राइब एंड कास्ट ऑफ सेंट्रल प्रोविंस, भाग 1, पृ0 175) और आर. एस. त्रिपाठी (हिस्ट्री ऑफ कन्नौज, पृ0 19) ने तो यहाँ तक सिद्ध किया है कि गहड़वाल राजपूतों का मूल स्थान मिर्जापुर था और इनके पूर्वज भर थे। गहड़वालों का आदि पूर्वज चंद्रदेव ग्यारहवी सदी के आखिर में राजा बना। गहड़वाल शासकों का शासन बारहवीं सदी तक चलता रहा। मदन पाल देव, विजय चंद्र, जयचंद्र आदि राजाओं का शासन वाराणसी से फैलकर कन्नौज और पूरे उत्तरी भारत पर हो गयौ। शाहाबाद वाराणसी और मिर्जापुर से नजदीक है अतः यहाँ गहड़वाल राजाओं के शिलालेख और ताम्रपत्र मिले हैं। चूँकि कैमूर जिले का यह क्षेत्र और सटा हुआ है अतः भर राजाओं का प्रभाव यहाँ और भी अधिक रहा। वैसे भर इस क्षेत्र में चेरू के आगमन के बाद ही आए हुए जान पड़ते हैं। शाहाबाद के दक्षिणी भाग में चेरो का प्रमुख गढ़ गढ़वट और चौंद (वर्तमान चैनपुर) में था। उत्तरी शाहाबाद में इनके प्रमुख गढ़ देवमार्कण्डेय (काराकाट) के साथ चकई, तुलसीपुर, रामगढ़वा, पीरी, बीरी, जोगीबार, भैरिया और घोषिया, जारन या तारन, महरथा (रामगढ़), रामगढ़ (तिलौथू) आदि में स्थापित हो गया। बुकानन (शाहाबाद, पृ0 144) और मार्टिन, दोनों ने लिखा है कि कर्मनाशा नदी के दोनों ओर उत्तर प्रदेश और बिहार में जितने भी नागवंशी राजपूत हैं वे सभी चेरू लोग हैं। बाद में उन्होंने राजपूत का दर्जा प्राप्त कर लिया। ये अपने को च्यवन ऋषि का वंशज और चौहान राजपूत कहने लगे। (गजेटियर शाहाबाद, पृ0 154) मुस्लिम आक्रमणों के कारण शेष चेरो पलामू में जाकर बसे और वहाँ राज्य स्थापित किया। जैसा कि हमने देखा भर शाहाबाद के दक्षिणी भाग में पहाड़ी पर और उसकी तराई में बसे थे। भर राजाओं के गढ़ों के अवशेष आज भी रघुवीरगढ़, पतेसर, भरारी, रामगढ़, धरहरा, साबलगढ़, उगहनी (चेनारी) आदि जगहों पर मौजूद हैं। भर जाति में तीन श्रेणियाँ हैं-राजा, बाबू और राजभर। राज परिवार के राजा होते थे। जमींदारों की श्रेणी बाबू या बाबूआन की है और गरीब तथा सामान्य भर अपने को #राजभर कहते हैं। बुकानन के समय भर राजाओं ने अपने को परिहार राजपूत बतलाया था। बुकानन की भेंट कोइंदी गाँव में मंगल सिंह तथा घाटी गाँव में कृपा सिंह, पतेसर में रघुनाथ सिंह जैसे तत्कालीन क्षेत्रीय राजाओं से हुई थी। उन लोगों ने बताया था कि उनके संबंध सभी राजपूत राजपरिवारों में हैं। इस क्षेत्र के सबसे बड़े जमींदार का परिवार जो पूर्व में भर राजपरिवार से था, आज भी बढ़ौना गाँव में निवास करता है। इनके संबंध सभी राजपूतों में होते हैं। आज भी ये अपने को परिहार राजपूत कहते हैं। दक्षिण बिहार में आधुनिक काल तक स्थानीय स्तर पर इनका शासन रहा। कैमूर और रोहतास क्षेत्र में भरों के अनेक ध्वंसावशेष उनकी महानता की कहानी कह रहे हैं। बाद के मुस्लिम आक्रमणों के फलस्वरूप वे कमजोर हुए, लेकिन पहाड़ी क्षेत्रों में आज भी ये ‘#बाबू_साहब’ ही कहलाते हैं। 👉 आगे हम भर राजाओं के अन्य गढ़ों की भी चर्चा करेंगे लेकिन अभी हम बात कर रहे हैं साबलगढ़ की। यह गढ़ दुबे की सरैयाँ गाँव के दक्षिण में पहाड़ी के पूरबी छोर पर नीचे में है। यह एक 50-60 फीट ऊँचा टीला है। पहाड़ी और टीले के बीच से सड़क जो नयी बनी हुई है, गुजर रही है। इस टीले का क्षेत्रफल लगभग 4 एकड़ है। इसपर कुछ लोग अपना घर बना चुके हैं। इसके कुछ भाग में खेती भी की जा रही है। इसके चारों ओर ध्वंसित अवशेष बिखरे पड़े हैं। गाँव वाले इसे कि़ला कहते हैं। इसपर बसने वालों ने बताया कि खुदाई करने पर पत्थर की बहुत मोटी लगभग 8 फीट चौड़ी दीवारें निकलती हैं। आज यहाँ देखने लायक कुछ भी नहीं है। यहाँ से थोड़ी दूरी पर पहाड़ी के उत्तर में एक मैदान है। इस मैदान का नाम ‘#हुमायूँ_मर्दन’ मैदान है। हमें नहीं पता कि इसका यह नाम क्यों पड़ा? बाद में यह विचारणीय होगा।आप लोग अपना सुझाव दे सकते है ।।

सुरहूरपुर का इतिहास

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सूरहुरपुर परगना।  ​​परगना का नाम सुरहुरपुर गाँव से लिया गया है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वहाँ के एक राजा सरहंदाल, सोहन डल  भर/राजभर के नाम से पुकारा जाता था। पुराने भर /राजभर गाँवों के अवशेष सुरहुरपुर, मसोरा, देवडीह और भुजगी में मिलते हैं, जबकि बड़ी संख्या में भर /राजभरआज भी इस परगना में रहते हैं। भरो को लगता है कि पलवारों द्वारा कई मुसलमान उपनिवेशवादियों द्वारा विस्थापित किया गया है। सुरहुरपुर ने अकबर के दिनों में एक महल का नाम दिया था, लेकिन वर्तमान परगना कई परिवर्तनों का परिणाम है। सीमा को 1801 में नए सिरे से परिभाषित किया गया था, जब सआदत अली खान ने अंग्रेजों को देवदार से दूर किया; इस तबादले से सुरहुरपुर पकरपुर का टप्पा खो गया और सात अन्य के हिस्से आ गए, जिसमें 199 गाँव शामिल थे जो अब आज़मगढ़ के माहुल परगना में बन गए। इन सभी गांवों में महुल के सैय्यद के स्वामित्व वाली एकल संपत्ति का हिस्सा था, जो अस्सी के दशक के मध्य में शेर जहान और शमशेर जहान द्वारा स्थापित संपत्ति थी। संपत्ति को अपनी स्थिति के संदर्भ के बिना ब्रिटिश सरकार को हस्तांतरित कर दिया गया था-एक ऐसा कदम जो

भारशिव नागावंशी

भार शिव: सुल्तानपुर के अंतिम हिंदू शासक थे राजा नंदकुंवर! Posted on July 11, 2021 by bhadas4media.com विक्रम बृजेंद्र सिंह- इतिहास का भूला हुआ सच.. जिसे अधिकांश सुल्तानपुरवासी नहीं जानते ! ११वीं-१२ वीं सदी में जब भारत लगातार अरब देशों के मुस्लिम आक्रांताओं के आक्रमण झेल रहा था, आम जनता उनकी दरिंदगी और जुल्म का शिकार हो रही थी, उस वक़्त मध्यप्रदेश के सागर से लेकर नेपाल की सरहद गोरखपुर तक, भदोही से लेकर बहराइच तक निडर, लड़ाकू, पराक्रमी शिवभक्त भरों का आधिपत्य था। भगवान शिव के अनन्य भक्त, शैव मतावलंबी, युद्ध विद्या में निपुण,परम प्रतापी भरों को इसी वजह से ‘भारशिव’ व ‘राजभर’ भी कहा जाता है। सैकड़ों गढ़, दुर्ग व किले इन्हीं राजभरों के आधिपत्य में थे। सुल्तानपुर भी उन्हीं में से एक था। अलबत्ता..तब वो सुल्तानपुर नहीं बल्कि ‘कुशपुर’ या ‘कुशभवनपुर’ कहा जाता था।’गजेटियर ऑफ अवध’, सुल्तानपुर गजेटियर व इम्पीरियल गजट आदि अनेकों आधिकारिक किताबों में इसका जिक्र है। नेपाल की सरहद से सटे श्रावस्ती-बहराइच में महाप्रतापी भर राजा सुहेलदेव व कुशपुर (मौजूदा सुल्तानपुर) में नंद कुंवर की सत्ता थी। उससमय कुशपुर का

भारशिव राजभर इतिहास

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